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कल्पसूत्रे I .. सशब्दार्थे
||३२९॥
भगवत
आचारपरिol पालनविधे
वर्णनम्
| त्थे भगवं अकुक्कए अपडिपणे उड्ढमहोतिरियलोयसरूवं समाहिय झाण झाइत्था] उकडू
आदि आसनों से स्थित भगवान् वीर प्रभु मुख आदि किसी अंग पर विकार नहीं होने देते थे । इहलोक और परलोक की प्रतिज्ञा से रहित होकर तीनों लोकों के स्वरूप का मनोयोग पूर्वक चिन्तन करके धर्मध्यान में संलग्न रहते थे [छउमत्थे वि भगवं अकसाइ विगयगेही सदरूवाइसु अमच्छिए विपरकममाणे सइंपि पमायं णो कुब्बित्था] छद्मस्थ होकर भी भगवान् ने कषायहीन अनासक्त, शब्द एवं रूप आदि में मूर्छा न करते हुए विशेषरूप से पराक्रम करते हुए एकबार भी प्रमाद नहीं किया [आयसोहीए आयतजोगं सयमेव अभिसमागम्म अभिनिव्वुडे आवकहं अम्माइल्ले भगवं समिए आसी] आत्म शोधन पूर्वक स्वतः आयतयोग-ज्ञानपूर्वक सम्यग्योग व्यापार का आश्रयलेकर यावज्जीवनिवृत्तिमय अमायी और समित रहे [एसो विही मइमया माहणेण अपडिपणेण भगवया 'अण्णेवि मुणिणो एवं रीयंतु' ति कटु बहुसो अणुक्कतो]
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