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कल्पसूत्रे शब्दार्थे
॥३२८॥
को, ब्राह्मणों को, भिखारीयों को अतिथि अथवा चाण्डाल को देखकर [विहमाणे] वापसलौट जाते [अप्पत्तियं परिहरंते] अविश्वास को उत्पन्न न करते [अहिंसमाणे ] हिंसा से बचते हुए [सया समिएं] सदा समितियुक्त [मंद मंदं परक्कमिय] धीरे धीरे चलकर [अन्नत्थ घासमेसित्था] दूसरी जगह आहारकी गवेषणा करते थे [सूइयं वा असूइयं उल्लं वा सुक्कं वा सीयपींडं पुराणकुम्मासं अदुवा बक्कलं पुलागं वा जं किंचिद्धतं आहरित्था] इसरे स्थान पर भी चाहे व्यंजन आदि से संस्कार किया हुआ आहार मिले या असंस्कारित आहार मिले, गीला मिले या भुने हुए चने आदि रूखा सूखा मिले, वासी मिले या पुराने उडद मिले, चने आदि के छिलके मिले या निस्सार अन्न मिले जो कुछ भी कल्पनीय मिले जाय उसी का आहार करते थे । [ल
अलवा पिंडे दविए समभावेण रीइत्था ] भिक्षाचर्या में आहारमिला तो और न मिला तो संयमशील भगवान् मध्यस्थभाव में ही विचरते थे । [उक्कुडुयाइ आसण
भगवत आचारपरिपालन विधे
वर्णनम्
॥३२८॥