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भगवत. आचारपरिपालनविधे.
वर्णनम्
कल्पसूत्रे । णो चेव पावगं सयमकासी] पाप के परिणाम को जान कर महावीरने न स्वयं पाप किया सशब्दार्थे [अन्नेहिं वा णो कारित्था] न दूसरों से करवाया [करतंपि णाणुजाणित्था] न करनेवाले ॥३२७||
का अनुमोदन ही किया [गाम णगरं वा पविस्स भगवं परहाए कडं घासमेसिस्था] ग्राम या नगर में प्रवेश करके भगवान् ने दूसरों के निमित्त बनाये गये आहार की एषणा की [सुविसुद्धतमेसिय आययजोगयाए सेवित्था] एवं निर्दोष आहार की एषणा करके भगवान् ने उसका सम्यक् मन वचन काय के योग के व्यापार के साथ अर्थात् समभाव से सेवन किया [भिक्खायरियाए भमंते भगवं वायसाइए रसेसिणो सत्ते घासेसणाए चिटुंते पेहाए संयंताओ निवत्तीअ] भिक्षा के लिए भ्रमण करते हुए भगवान् । | रसके अभिलाषी अर्थात् रस लोलुप कौवे आदि प्राणियों को आहार की खोज करते हुए देखकर स्वयं ही उसस्थान से दूर हो जाते थे [अहय पुरओ ठियं समणं वा माहणं वा गामपिण्डोलगं वा अतिहिं वा सोवागं वा पेहाए] सामने खडे हुए श्रमणों
॥३२७॥