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________________ कल्पसूत्रे रहते थे [तत्थ अण्णे समणा लटुिं नालियं च गहाग विहरिसु, तहवि ते सुणएहिं पिटु- भगवतो सशब्दार्थ लाढदेशभागे संलंचिजिंसु] दूसरे श्रमण वहां डंडा और लाठी लेकर विचरते थे, फिर भी कुत्ते विहरणम् ॥३१६॥ उन्हें पीछे से नोंच लेते थे, [अओ लाढेसु दुच्चरगाणि ठाणाणि संति-त्ति लोए पसिद्धं] । अत एव लोगों में यह बात फैल गइ थी कि लाट देश में ऐसे स्थान हैं जहां चलना कठिन है। [तत्थ वि अभिसमेव्च भगवं 'साहणं दंडो अकप्पणिज्जो' त्ति कट्ठ] वहां जाकर भी भगवान् ने साधुओं को डंडा रखना कल्पता नहीं ऐसा सोचकर [दंड रहिए । ॥ वोसट्टकाए गामकंटगाणं सुणगाणं च उवसग्गे अहियासीअ] दंड रहित काया की ममता ॥ का त्याग कर दुर्जनों और श्वानों के उपसर्गों को सहन किया [संगामसीसे नागोव्व से महावीरे तत्थ पारए आसी] संग्राम के बीच हाथी को भांति महावीर उन उपसर्गों को पार करने वाले हुए [एगया तत्थ गामंतियं उवसंकमाणं अपत्तगामं भगवं अणारिया || .. पडिनिक्खमित्ता एयाओ परं पलेहित्ति कहिय लूसिंसु] एक समय भगवान् गांव के ॥३१६॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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