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________________ भगवतो कल्पसूत्रे - सभब्दार्थे ॥३१५॥ कंटक, शीत और उष्ण आदि के स्पर्शों को तथा डांस मच्छर आदि के दंखों को समाधि लाढदेश| में लीन रहकर सम्यगं प्रकार से निरंतर सहन किया [पंतं सेज्जं पंताई असणाई सेवीअ] विहरणम् कष्ट कर निवासस्थानों का तथा निरस कष्टकर अशन आदि का सेवन किया [तत्थ भगवओ बहवे उवसग्गा समागया] वहां भगवान् पर बहुत उपसर्ग आये [तं जहालूहे भत्ते संपत्ते, जाणवया लूसिंसु, कुक्कुरा हिंसिंसु निवाड़िसु] जैसे-वहां लूखा भोजन | मिला, वहां के लोगों ने मारपीट की, कुत्तों ने काटा और निचे गिरा दिया [अप्पा | चेव उज्जुया जणा लूसएण उसमाणे सुणए य निवाति] कोई विरले सीधे लोग ही । मारने वालों को एवं काटने वाले कुत्तों को रोकते थे [बहवे उसमणं कुक्करा डसंतु' त्ति कट्ठ सुणए छछकारेंति] बहुत से तो यही सोचते थे कि इस श्रमण को कुत्ते काटें तो अच्छा, ऐसा सोचकर वे कुत्तों को छुछुकारते थे। [तत्थ वजभूमीए बहवे फरुसभासिणो कोहसीला वसंति] उस वज्र भूमि में बहुत से रूरवा बोलने वाले और क्रोधशील लोग ॥३१५॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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