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कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥३०८॥
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भगवतो में रहते हुए भगवान् महावीर यथा समय उस उस स्थान पर गोचरीलाकर आहारपानी
विहारकरते थे एवं दिन-रात यतना करते हुए, प्रमादहीन होकर और समाधि में लीन रहकर
स्थानधर्मध्यान ही करते रहते थे। इन स्थलों में ठहरते समय भगवान् को देवों आदि द्वारा वर्णनम् भांति-भांति के उपसर्ग हुए। जैसे-सादि तथा द्वीन्द्रिय आदि चलने-फिरने वाले प्राणी अथवा गीध आदि पक्षी स्थाणु की तरह अचल भगवान् को उपसर्ग करते थे। कभी-कभी प्रभु के रूप पर मोहित होकर स्त्रियां प्रभु को उपसर्ग करती थीं। तथा शक्ति नामक अस्त्र । हाथ में लिये ग्रामरक्षक-कोतवाल आदि कुछ भी न बोलने वाले भगवान् को चोर की आशंका करके अर्थात् चोर समझकर शस्त्रों का प्रहार करके उपसर्ग करते थे, परन्तु भगवान् इन सभी उपसर्गों को सम्यग् रीति से सहन करते थे। तथा-भगवान् इहलोक संबंधी मनुष्यादिकृत तथा परलोक संबंधी अर्थात् देवादिकृत अनेक प्रकार के अनुकूल एवं प्रतिकूल शब्दों को, विविध प्रकार के भयानक पिशाच आदि के रूपों को 'आदि' शब्द से देवांगना
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