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________________ IPLI. भगवतोऽ विहार ॥३०९|| स्थानवर्णनम् कल्पसत्रे आदि के मनोहर रूपों को, तरह-तरह की सुगंध और दुर्गंध को, तथा अमनोज्ञ और सशब्दार्थे उपलक्ष से मनोज्ञ स्पर्शों को, सदैव समितियुक्त होकर, राग-द्वेष को त्यागकर, मौन भाव से अपने सुख-दुःख को प्रकाशित न करते हुए, निश्चलरूप से सहन करते थे। कभी -कभी ऐसा ऐसा प्रसंग आता था कि भगवान् सुने घर में रात्रि के समय कायोत्सर्ग में | स्थित रहते थे, उस समय व्यभिचारी पुरुष परस्त्री के साथ कामभोग सेवन करने के | लिए वहां आते और भगवान् से पूछते-कौन हैं तू ? तब भगवान् कुछ उत्तर नहीं देते, मौन साधे रहते। तब कुछ भी उत्तर न देने वाले भगवान् पर वे क्रोधित होते, रूष्ट होते | और भगवान् को अनेक प्रकार से लट्ठी मुट्ठी आदि से ताडना करते। उस उपसर्ग को I भी भगवान् सम्यग्र रूप से सह लेते थे। कभी किसी ने पूछा-'कौन हैं यहां ? इस प्रश्न के उत्तरमें वीर प्रभु ने कहा-मैं भिक्षु हूं, वह शब्द सुनकर वे जार पुरुष क्रोध 2 आदि कषायों से युक्त हो जाते और ताडना करके कहते-दूर जा यहां से' इस प्रकार ॥३०९॥ IHAFIL rell . . .
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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