________________
कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥३०७॥
त्ति सोयंति] कोई कोई सोचते थे कि वस्त्रओढने पर ही इस शीत के कष्ट को सहन livil भगवतो कर सकते है [तसि तारिसगंसि सिसिरंसि दविये भगवं अपडिपणे समाणे] ऐसे शिशिर विहार
स्थानके समय में भी भगवान् मुक्ति के अभिलाषी और अप्रतिज्ञ रहकर [वियडे ठाणे तं
वर्णनम् सीयं सम्म अहियासीअ] सम्यक् प्रकार से उस शीत को सहन करते थे [एस विही ll 'अण्णे मुणिणो वि एवं रियतु' ति कटु अपडिन्नेण मइमया भगवया बहुसो अणुकंतो] | 'अन्य मुनि भी इस प्रकार आचरण करें' ऐसा सोचकर अप्रतिज्ञ एवं मतिमान् भगवान् ने अनेक बार इस प्रकार के आचार का पालन किया ॥सू५२॥
भावार्थ--कभी कभी भगवान् शिल्पियों की शालाओं में कभी सभा-स्थलों में और कभी-कभी प्याउओं में उतरते थे । कभी-कभी जनशून्य दुकानों में, कभी कार- Irail खानों में कभी पलाल के पुओं में, कभी धर्मशालाओं में, कभी उपवन में बने घरों में, कभी वृक्षों के नीचे उतरते थे। इन सब स्थानों में तथा इसी प्रकार के अन्य स्थानों
| ॥३०७॥