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________________ विहार भगवतो स्थानवर्णनम् - कल्पसूत्रे । 'को एत्थ' त्ति पुच्छए भगवं वदीय-अहमंसि भिक्खू ति सोच्चा सकसाएहिं तेहिं आह- सशब्दार्थ च्च-] यहां कौन हैं ? इस प्रकार पूछने पर कदाचित् भगवान् उत्तर देते थे-मैं भिक्षुक ॥३०६॥ हूं।' यह सुनकर वे कषाययुक्त हो जाते और मारपीट करते-[अपसरेहि एत्तो' त्ति कहिय भगवं अयमुत्तमे धम्मे' त्ति कटु तत्तो तुसिणीए चेव निस्सरीअ]-हठ यहां से इस प्रकार कहे गये भगवान् यही उत्तम धर्म है' ऐसा सोचकर बिनाबोले ही वहां से निकल जाते थे। [जसि हिमवाए सिसिरे पवेयए मारुए पवायंते अप्पेगे अणगारा निवायं ठाणमेसंति] जिस शीतलवायुवाली शिशिरऋतु में, कंप कँपी उत्पन्न करनेवाली हवा चलने पर कोई-कोई अनगार वायुरहित स्थान की गवेषणा करते थे [अण्णे 'संघाडीओ' पविसिस्सामोत्ति वयंति] और कोई कोई कहते थे कि 'हम संघाटी-चादर | ओढेंगे' [एगेय इंधणाणि समादहमाणा चिटुंति] तथा कोई कोई संन्यासी आदि शीत निवारण के लिए ईधन जलाते थे [केइ पिहिया अइदुक्खं हिमगसंफासं सहिउं सक्खामो ॥३०६॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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