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कल्पसूत्रे
भगवतो
सशब्दार्थे
॥३०५॥
विहारस्थान'वर्णनम्
फासाइं सया समिए रइं अरइं अभिभूय अवाई समाणे सम्म अहियासीअ] तथा तरह तरह के स्पर्शों को सदा समितियुक्त, तथा रति अरति का अभिभव करके, मौन रहकर सम्यग् प्रकार से सहन करते रहे ।
[सुण्णागारे राओ काउसग्गे ठियं भगवं कामभोगे सेविउकामा परत्थीसहिया एगचरा समागया पुच्छंति-] कभी कभी सूने घरमें रात्रि के समय काम भोग सेवन के की कामना करनेवाले परस्त्री के साथआये हुए जार पुरुष कायोत्सर्ग में स्थित भगवान् से पूछते थे-[कोऽसि तुम' ति] तू कौन है ? [तया कयावि भगवं न किंपि वयइ तुसि. णीए संचिट्टइ] तो भगवान् कभी भी कुछ भी उत्तर नहीं देते थे चुपचाप रहते थे। [तया अवायए भगवम्मि कुद्धा रुट्टा समाणा नाणाविहं उवसगं करेंति] उस समय मौन रहने वाले भगवान् पर वे क्रुद्ध होकर नाना प्रकार के कष्ट उन्हें देते थे [तं पि भगवं सम्मं सहीअ] उस कष्ट को भी भगवान् ने सम्यक् प्रकार सहन किया। [कया वि
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