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भगवतो
कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥३०३॥
विहारस्थानवर्णनम्
शब्दार्थ-[कयाइ भगवं आवेसणेसु वा सहासु वा पवासु वा] कभी भगवान् शिल्पकारों की शालाओं में उतरे, कभी सभाओं में, कभी प्रपाओं में [एगया कयाइ सुण्णासु पणियसालासु पलियटाणेसु पलालपुंजेसु वा] कभी सूनी दुकानों में, कभी कारखानों में, कभी पलाल के पुंजों में, [एगया आगंतुयागारे आरामागारे णगरे वा वसीअ] | कभी धर्मशालाओं में, कभी आरामगृहों में कभी बगीचों में कभी घरों में कभी नगर में रहते | थे तो कभी [सुसाणे सुन्नागारे रुक्खमूले वा एगया वसीअ] स्मशान में शून्य गृहों में और कभीवृक्ष के नीचे रहते थे [एएसु ठाणेसु तहप्पगारेसु अण्णेसु ठाणेसु वा वसमाणे समणे भगवं] इन स्थानों में अथवा इसी प्रकार के अन्य स्थानों में रहते हुवे श्रमण भगवान् [तत्थ तत्थ कालावसरे] वहां पर आहार के योग्य समय पर [आहारं आहरेइ] आहारपाणी करतेथे, गृहस्थी के घर पर नहीं एवं [भगवं महावीरे राइंदियं जयमाणे अप्पमत्ते समाहिए झाईअ] भगवान् श्रीमहावीर प्रभु रातदिन यतना करते हुए अप्रमत्त और समाधियुक्त रहे। [तत्थ तस्सुवसग्गा नीया अनेगरूवा य हविंसु तं जहा-] इन स्थानों पर भगवान् को अनेक
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