________________
भगवतोऽनार्यदेशसंजातपरीहोम वर्णनम्
कल्पसूत्रे l रक्षक श्री महावीर प्रभु 'सभी द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय, और चतुरिन्द्रिय रूप प्राण, वनस्पतिमशब्दार्थे ।
काय रूप भूत, पंचेन्द्रियरूप जीव, पृथ्वीकाय-अप्रकाय-तेजस्काय-वायुकायरूप सत्व, ॥२९॥
अपने-अपने कर्म के परिपाक के अनुसार चार गति रूप संसार के दुर्गम मार्ग में परि- भ्रमण कर रहे हैं, अर्थात् कभी नारक, कभी तिर्यञ्च, कभी नर और कभी अमर [देव] रूप से जन्म-मरण कर रहे हैं इस प्रकार संसार की भयावह विचित्रता का विचार करते हुए संयम-मार्ग में विचरते रहे। हिरण्य-सुवर्ण आदि द्रव्य-ऊपाधि, तथा आत्मा की दुष्परिणति रूप भाव-उपाधि-में आसक्त अज्ञानी प्राणी प्राणातिपात आदि पाप कर्मों का बन्ध करते हैं, ऐसा जानकर श्री वीर भगवान् पापों से विमुख अर्थात् | निवृत्त थे । अनार्थ देश के लड़के श्री वीर प्रभु को देखकर लट्रियों मुट्रियों से मार-मार कर बार-बार ताड़ना तर्जना करके अपना अपराध छिपाने के लिए उलटे रोने लगते थे। अनार्य-म्लेच्छ लोग भगवान् को डंडों से मारते थे, बार-बार बालों के अग्रभाग को
॥२९७॥