SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 314
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कल्पसूत्रे शब्दार्थे ॥२९८॥ खींच-खींचकर सताते थे । फिर भी भगवान् ने उन अनार्यों के प्रति जरासाभी द्वेष नहीं किया और गृहस्थों द्वारा संभाषण करने पर भी भगवान् उनके साथ जाति कुल आदि संबंधी परिचय नहीं करते थे । मौन धारण किये हुए धर्म ध्यान में लीन होकर विहार करते थे । वीर भगवान् ने दुस्सह परीषहों [ भूख-प्यास आदि की बाधाओं ] तथा उपसर्गों [देवों, मनुष्यों तथा तिर्यचों द्वारा कृत उपद्रव ] को कुछ न समझा, अर्थात् - समभाव से सहन किया । नृत्य-गीतों में राग धारण नहीं किया । कहीं दण्डयुद्ध हो रहा हो या मुष्टिदण्ड [घूंसेबाजी] हो रहा हो तो उसका वृत्तान्त सुनकर कभी उत्कंठा नहीं उत्पन्न की। काम संबंधी बातचीत करने में प्रवृत्त स्त्रीजनों के पारस्परिक वार्तालाप को सुनकर भगवान् राग-द्वेष से रहित ही बने रहे और मध्यस्थ भाव से, आश्रय रहित होकर विचरे । भयानक और अत्यंत भयानक संकट आने पर भी भगवा चित्तवृत्तिको तनिक भी विकारयुक्त न करके सतरह प्रकारके संयम और बारह भगवतो - नार्यदेशसंजातपरी होपसर्ग वर्णनम् ॥२९८॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy