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कल्पसूत्रे शब्दार्थे ॥२९६॥
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हुए प्रभु अनार्य देश में पधारे। वहां चौमासी तप के साथ नौवां चौमासा किया । इर्यासमिति और उपलक्षण से भाषासमिति आदि सभी समितियों से सम्पन्न तथा तीन तियों से गुप्त भगवान् स्त्रीजनों द्वारा की गई भोग-प्रार्थनारूप अनुकूल परीषहों को तथा अनार्य जनों द्वारा कृत तर्जना - ताड़ना आदि रूप प्रतिकूल परीषहों को क्रोध के बिना सहते हुए, दीनता के बिना तितिक्षण करते हुए, निश्चल भाव से अध्यास करते हुए मौन का अवलम्बन किये हुए ही निरतिचार चारित्र के मार्ग में तत्पर रहे | किसी मनुष्य ने उन्हें वन्दन किया और नमस्कार किया तो वन्दना करने वाले और नमस्कार करने वाले पर वे यत्किंचित् भी तुष्ट-प्रसन्न नहीं हुए, किसी ने निन्दा की - गर्हा की, अनादर किया, तो ऐसा करने पर जरा भी रूष्ट या अप्रसन्न नहीं हुए । उन्होंने सभी पर समान भाव धारण किया । 'मेरे लिए न कोई द्वेष का पात्र है, न कोई राग का पात्र है' इस प्रकार की भावना से आत्मा को भावित करते रहे । षड्जीवनिकाय के
भगवतोsनार्यदेशसंजातपरी
पहोपसर्ग
वर्णनम्
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