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कल्पसूत्रे सशब्दार्थे
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लाया [विहरमाणे भगवं तिरियं पिट्टओ य नो पेहीय] विहार करते समय न वे इधर 12
भगवतोऽउधर देखते थे, न पीछे की ओर देखते थे [सरीरप्पमाणं पहं अग्गे विलोइय इरिया
नार्य देश
|संजातपरीसमिईए जायमाणे पंथपेही विहरीअ] सामने शरीरप्रमाणमार्ग को देखते हुए ईर्यासमिति | पहोपसर्ग पूर्वक यतना करते हुए चलते थे [सिसिरंमि बाहू पसारित्तु परक्कमीअ] शिशिरऋतु में |
वर्णनम् दोनों भुजाएं फैलाकर संयम में पराक्रम प्रकट करते थे। [नउण बाह कंधेसु अवलंबीअ] भुजाओं को अपने कंधों पर नहीं रखते थे [अण्णे मुणिणोऽवि एवमेव रीयंतु त्ति कटु माहणेण अपडिन्नेण भगवया एस विही बहुसो अणुकंतो] अन्य मुनि भी इसी | प्रकार विचरें, यह सोचकर अप्रतिज्ञ-कामना रहित माहन भगवान् वर्धमान ने अनेक बार इसी विधि का अनुसरण किया ॥५१॥
भावार्थ-राजगृह नगर में आठवां चातुर्मास बिताने के बाद श्रमण भगवान् महावीर ने राजगृह नगर से विहार किया। कठोर कर्मों का क्षय करने के लिए विचरते
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