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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ॥२९५॥ . लाया [विहरमाणे भगवं तिरियं पिट्टओ य नो पेहीय] विहार करते समय न वे इधर 12 भगवतोऽउधर देखते थे, न पीछे की ओर देखते थे [सरीरप्पमाणं पहं अग्गे विलोइय इरिया नार्य देश |संजातपरीसमिईए जायमाणे पंथपेही विहरीअ] सामने शरीरप्रमाणमार्ग को देखते हुए ईर्यासमिति | पहोपसर्ग पूर्वक यतना करते हुए चलते थे [सिसिरंमि बाहू पसारित्तु परक्कमीअ] शिशिरऋतु में | वर्णनम् दोनों भुजाएं फैलाकर संयम में पराक्रम प्रकट करते थे। [नउण बाह कंधेसु अवलंबीअ] भुजाओं को अपने कंधों पर नहीं रखते थे [अण्णे मुणिणोऽवि एवमेव रीयंतु त्ति कटु माहणेण अपडिन्नेण भगवया एस विही बहुसो अणुकंतो] अन्य मुनि भी इसी | प्रकार विचरें, यह सोचकर अप्रतिज्ञ-कामना रहित माहन भगवान् वर्धमान ने अनेक बार इसी विधि का अनुसरण किया ॥५१॥ भावार्थ-राजगृह नगर में आठवां चातुर्मास बिताने के बाद श्रमण भगवान् महावीर ने राजगृह नगर से विहार किया। कठोर कर्मों का क्षय करने के लिए विचरते ॥२९५॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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