SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 310
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - कल्पसूत्रे संलीणाणं इत्थी जणाणं मिहो कहासंलावे सुणिय भगवं रागदोसरहिए मज्झत्थभावेण | भगवतोऽसशन्दार्थ असरणे एव विहरीअ] काम-कथा में लीन स्त्री जनों की आपस की बाते सुनकर नार्यदेश संजातपरी॥२९४॥ || भगवान् रागद्वेष रहित, मध्यस्थ भाव से अशरण [आश्रय रहित] ही विहार करते रहे । पहोपसर्ग घोराइघोरेसु संकडेसु किंचि वि मणोभावं न विगडिय संजमेण तवसा अप्पाणं भावेमाणे वर्णनम् || विहरीअ] घोर और अति घोर संकट आने पर भी लेश भर भी मन के भाव को विकृत {} न करते हुए संयम और तप से आत्मा को वासित करते हुए विचरे [भगवं परवत्थ मवि न सेवित्था] भगवान् ने परवस्त्र का सेवन नहीं किया। [गिहत्थपाए न भुंजित्था] और गृहस्थ के पात्र में भोजन नहीं किया [असणपाणस्स मायण्णे रसेसु अगिद्धे अपडिन्ने आसी] वे भोजन-पाणी की मात्रा के ज्ञाता थे, रसों में अनासक्त थे, अप्रतिज्ञइहलोक और परलोक की कामना से रहित थे [अच्छिपि नो पमज्जिअ, नोऽवि य गायं कंडूईय] उन्हीं ने कभी आंख तक की भी सफाई नहीं की और न काया को ही खुज SE H ॥२९४॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy