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सरन्दायें
भगवतोऽनार्यदेशसंजातपरीपहोपसर्ग
वर्णनम्
कल्पनने ।। वांदिओ णमंसिओ निंदिओ तिरक्किओ वा न तुट्टे न रुटे समभावेण भावियप्पा चेव
चिट्ठीय] किसी ने वन्दना की नमस्कर किया तो न तुष्ट हुए । किसी ने निन्दा की ॥२९२॥
या तिस्कार किया तो रुष्ट न हुए । समभाव से भावितात्मा होकर ही रहे । [छक्कायपरिवालगो भगवं 'सव्वेपाणा सव्वे भूया सव्वे जीवा सव्वे सत्ता सयसयकम्मप्पभावेण चाउरंतसंसारकंतारे परिभमंति] षट्काय के रक्षक भगवान् सभी प्राण सभी भूत, सभी जीव और सभी सत्त्व, अपने-अपने कर्मों के प्रभाव से चारगतिरूप संसार अटवी में | परिभ्रमण कर रहे हैं' [:-त्ति संसारवेचित्तं विभावमाणे विहरीअ] इस प्रकार संसार की विचित्रता का विचार करते हुए विचरे [दव्वभावोवाहिपडिया अण्णाणिणो जीवा पावाइं
कम्माई बंधति ति कटु भगवं पावकम्म-कलावाओ परम्मुहो आसी] द्रव्य और ... भाव उपाधि में पडे हुए अज्ञानी जीव पाप कर्मों का बन्ध करते हैं। ऐसा सोचकर । .. भगवान् पाप समूह से विमुख थे। [वाला य भगवं दट्ठणं लट्ठि-मुट्ठीहिं हणिय हणिय
॥२९२॥