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________________ - कल्पसूत्रे सशन्दाथै ॥२९॥ भगवतोऽनार्यदेशसंजातपरीपहोपसर्गवर्णनम् कटु माहणेण अपडिन्नेण भगवया एस विहि बहुसो अणुकतो ॥५१॥ ___ शब्दार्थ-[तएणं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ णयराओ पडिनिक्खमइ] इसके बाद श्रमण भगवान् महावीरस्वामी राजगृह नगर से निकले [पडिनिक्खमित्ता कढिणकम्मक्खवणटुं अणारियदेसं समणुपत्ते] और निकलकर कठिन कमा का क्षय करने के लिए अनार्यदेश में पधारे [तत्थ णं नवमं चाउम्मासं चाउम्मासतवेण ठिए] वहां चौमासी तप के साथ चौमासे में स्थित हुए [तत्थ णं भगवं इरियासमिइसमिए इत्थीजणकए भोगपत्थणारूवे अनुकूलपरिसहे] वहां ईर्यासमिति से युक्त भगवान् स्त्रियों द्वारा किये गये भोग प्रार्थनारूप अनुकूल परीषहों को [मिलिच्छजणकए पडिकूलपरिसहे य सहमाणे] म्लेच्छाजनों द्वारा किये गये प्रतिकूल परीषहों को सहन करते हुए [तितिक्खमाणे अहियासेमाणे तुसिणीए चेव वेरग्गमग्गे विहरीअ] तितिक्षण करते हुए अध्यास करते हुए मौनयुक्त हो वैराग्यभाव से मार्ग में विचरते रहे। [केणवि ॥२९॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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