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________________ ॥२८॥ समभाव: कल्पसूत्रे । खेइ अहियासेइ नो णं मणसावि तस्स असुहं चिंतेइ] क्षमा किया, तितिक्षा की 1 उपकाराप कारविपये सशब्दार्थे • और अध्यास किया । मन से भी उस देव का अशुभ नहीं सोचा [तुसिणीए धम्म भगवतः ज्झाणोवगए चेव विहरइ] मौन भाव से धर्मध्यान में लीन होकर ही विचरते रहे। समभावः [एवं से संगमे देवे जणवयविहारं विहरमाणं भगवं पच्छागमिय छम्मासं जाव उवसग्गीअ] इस प्रकार उस संगम देव ने जनपद विहारकरते हुए भगवान् के पीछे जाकर छमास तक उपसर्ग किये [तहावि पहुस्स वज्जरिसहनारायसंघयणत्तणेय न पाणहाणी जाया] तथापि प्रभु का वज्र ऋषभनाराच संहनन होने से प्राणहानि नहीं हुई। [एवं णं विहरमाणे भगवं संवच्छरं साहियमासं सचेलए] इस प्रकार विचरण करते हुए भगवान् एकमास अधिक एक वर्ष पर्यन्त सचेलक रहे [तओ परं] तत्पश्चात् [एकया] एक समय [हेमंते] हेमन्त ऋतु के समय [भगवं] भगवान् [देवदूसं] देवदूष्य वस्त्र को [पासे ठवित्ता] बाजू पर रखकर के [काउसग्गे ठिए] कायोत्सर्ग-ध्यान करने में ॥२८०॥ :
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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