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________________ कल्पसूत्रे उपकारापकार विपये भगवतः समभाव: ॥२७८|| दसावेइ निदंसावेइ, उवदंसावेइ] तब भी भगवान् बर्धमान स्वामी को क्षुब्ध हुआ न सशब्दार्थे , देखकर उसने तीखे मुखवाली बडी बडी चीटियों की विकुर्वणा करके उन से डंसवाया, खूब डंसवाया और पूरी तरह डंसवाया। [तेण पहुसरीराओ पबलरुहिरधारा निस्सरेइ, तहवि पहू नो चलइ] ससे प्रभु के शरीर से रुधिर की प्रबल धारा वह निकली, फिर भी प्रभु चलायमान न हुए। [तओ पच्छा तिक्खविसभरियकंटयाइं विच्छिय सयं सहस्साइं विउव्विय पहुं उवसग्गेइ] उसके बाद उग्र विष से परिपूर्ण कांटों वाले लाखों बिच्छुओं की विकुर्वणा कर प्रभु को उपसर्ग करवाया [पच्छा तेण विगरालसुंडे तिक्खदंते दंती विउविए] उसके बाद भयानक सूंड वाले और तीखे दांतों वाले हाथी की विकुर्वणा की [ से णं सुंडाए भयवं उहाविय अहे पाडइ] उस हाथी ने सूंड से भगवान् को ऊपर उठा कर नीचे गिराया [तओ रियतिखदंतग्गेण विदारिय पाएहिं मदेइ] और फिर छुरी की तरह तीक्ष्ण दांतों से विदारण कर के पावों से कुचला [तओ ॥२७८।।
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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