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________________ • कल्पसूत्रे सशब्दार्थे ||२७७॥ समभाव: काउस्सग्गठियं पहुं एवं वयासी] उसके बाद वह देव शीघ्र ही रुष्ट हो गया । क्रुद्ध, उपकाराप कारविपये. कुपित रौद्राकार धारक और दांत पीसता हुआ वह देव कायोत्सर्ग में स्थित भगवान् भगवतः महावीर से इस प्रकार बोला-[हं भो भिक्खू! अपत्थियपत्थया ! सिरिहिरी-धिइकित्ति परिवज्जिया] अरे भिक्षु ! मौत की कामना करनेवाले ! श्री, हो धृति और कीर्ति | से शून्य ! [धम्मकामया] धर्म की अभिलाषा करने वाला [पुण्णकामया] पुण्य की कामना वाला [सग्गकामया] स्वर्ग का अभिलाषी [मोक्खकामया] मोक्ष का इच्छुक ! [४ धम्मपिवासिया] धर्म का पिपासु ४ [नो णं तुमं ममं जाणासि ? ] तू मुझे नहीं | जानता है ? [अहं तुमं धम्माओ परिभंसेमि] देख, मैं तुझे अभी धर्म से भ्रष्ट करता ह [त्ति कटु] ऐसा कह कर [पउरं रयपुंजं उप्पाडिय पहुस्स सासोच्छासं निरुधइ] उसने विशाल धूल का पटल उडाकर भगवान् के श्वासोच्छवास को रोक दिया [तह lil वि पहुं अक्खुद्धं दवणं पच्छा से तिक्खतुंडाओ महापिवीलियाओ विउव्विय ताहिं ॥॥२७७॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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