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________________ सशब्दार्थे कल्पसूत्रे विसजालाए भासरासी करोमि-त्ति कटु] मैं इसको अभी विष की ज्वाला से भस्म चण्डकोकर देता हूं। ऐसा सोचकर [कोहेण धमधमंतो आसुरुत्तो मिसिमिसे माणो विसग्गि |शिकस्य ॥२५॥ भगवदुपरिवममाणो फणं वित्थारयंतो भयंकरहिं फुक्कारेहिं दिद्धिं फोरेमाणो सुरं निज्झाइत्ता | विषप्रयोगः सामि पलोएइ] क्रोध से धमधमाता हुआ अत्यन्त क्रुद्ध हुआ, विष की ज्वालाओं का 1 चण्डको शिकप्रति वमन करता हुआ फण फैलाता हुआ भीषण फूत्कार करता हुआ सूर्य की ओर देख- बोधश्च कर प्रभु की ओर देखनेलगा [सो न डज्झइ जहा अण्णे] किन्तु उसका भयंकर विषIMIL दृष्टि से भी भगवान् अन्य की तरह जले नहीं [एवं दोच्चंपि तच्चपि पलोएइ तहवि सो न डज्झइ] सर्प ने दूसरी बार और तिसरी बार भी देखा, फिर भी प्रभु जले नहीं Aa [ताहे पहुं पायंगुट्टम्मि डसइ] तब उसने प्रभु के पाव के अंगूठे में डंस लिया [डसित्ता IVil मा मे उवरि पडिज' त्ति कटु पच्चो सकइ] डंसकर यह मेरे ऊपर ही न गिरपडे' यह | सोच कर दूर सरक गया [तहवि पहू न पडइ] फिर भी भगवान् गिरे नहीं [काउस्सग्गाओ ॥२५॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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