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________________ शब्दार्थे ॥ २५० ॥ कर. लोग मान लेते हैं कि उसमें परिवर्तन होना संभव नहीं हैं. किन्तु यथार्थ में वह अपरिवर्तनीय नहीं होती । जब चित्त का कोई भी अंश विकारयुक्त हो जाता है तो उचित उपाय से उसे विकृत अवस्था से अविकृत अवस्था में पलटा जा सकता है । इतना ही नहीं कि चित्त के विकृत अंश को बदलकर अविकृत बनाया जा सकता है, किन्तु उस विकृत अंश का जितना सामर्थ्य प्रतिकूल अनिष्ट विषय में होता है, उतने ही सामर्थ्य के साथ उसका अनुकूल इष्ट विषय में भी झुकाव हो सकता है। चित्त की कोई भी स्थिति क्यों न हो, अगर उस में बल है, वह सामर्थ्यशालिनी है, तो चाहे वह अनुकूल हो अथवा प्रतिकूल हो, अर्थात् वह कुमार्गगामिनी हो या सुमा मिनी हो, उस उत्कर्ष प्राप्त शक्ति को उपयोगी ही मानना चाहिये । कारण यह है कि चित्त की यह दोनों प्रकार की स्थितियां तुल्य सामर्थ्यवाली होती है । दोनों में भेद है तो केवल यही कि पहली चित्तस्थिति वर्तमान में शुभफलजनक कार्य में, फिर भी DOODL20 चण्डकौ - शिक वल्मि पार्श्व भगवतः कायोत्सर्गः ॥२५०॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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