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पत्रे
दार्थ
॥ २४८॥'
भावार्थ- श्वेताम्बी नगरी के दो मार्ग थे- एक चक्कर काटकर और दूसरा सीधा था। इन दोनों में जो सीधा रास्ता था उस में एक भयानक जंगल पडता था । उस भयानक जंगल में चंडकौशिक नामक एक सांप रहता था। वह दृष्टिविष था, अर्थात् उसकी दृष्टि में विष था। जिस पर वह दृष्टि पडे वह भस्म हो जाय । वह मृत्यु के जैसा अत्यंत भयंकर और काले रंग का था । वह सर्प अपने दुष्ट स्वभाव के कारण उस महाटवी के मार्ग से गमन-आगमन करनेवाले पथिकों को अपनी दृष्टि से जलाता हुआ पूंछ से ताना करता हुआ, प्राणहीन बनाता हुआ, और दांतों से प्रहार करता हुआ रहता था। वह उस अटवी में बार-बार इधर-उधर घूमता हुआ जिस किसी पक्षी को भी देखता, उस आकाशचारी पक्षो को भी अपने दृष्टिविष से भस्म कर देता था । ऐसी स्थिति में जमीन पर चलने वाले मनुष्य आदि प्राणियों का तो कहना ही क्या ? उस ausaौशिक सर्प के विष के प्रभाव से विष की ज्वालाएँ फैलने से, उस अटवी का
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चण्डकौ शिक वल्मिकपा भगवतः कायोत्सर्गः
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