________________
5.
चण्डको
शिक वल्मिकपाधै भगवतः कायोत्सर्गः
कल्पसत्रे, प्रमाद की कोई सीमा ही नहीं है [एयारिसा जीवा न किंपि काउं सकेंति] ऐसे प्राणी सशब्दार्थे
कुछ भी नहीं कर सकते [जेसु अत्तबलसोरियाइयं होइ ते सुहे असुहे वा पज्जाए होंतु ॥२४६॥
इच्छणिज्जा एव] जिन में आत्मबल है, शौर्य आदि गुण हैं वे चाहे शुभ अवस्था में हों या अशुभ अवस्था में हो वांछनीय ही है [जओ असुहपज्जाएवि तं अत्तबलाइयं
जेण अप्पंसेण निव्वत्तं, तस्स अप्पंसस्स सत्ती वि खओवसमभावेण चेव जीवेण पावि|| जइ] क्योंकि अशुभ अवस्था में भी वह आत्मबल आदि जिस आत्मांश से निष्पन्न
हुए है, उस आत्मांश की शक्ति भी क्षयोपशम भाव से ही जीव को प्राप्त होती है
[सा सत्ती निमित्तं पाविय जहिटुं परिवटिङ सकिजइ] वह शक्ति निमित्त पाकर इच्छानु... सार बदली जा सकती है [अओ तत्थ गमणे लाहो एव त्ति चिंतिय भगवं तेणेव उज्जुणा
मग्गेण पट्टिए] अतएव वहां जाने में लाभ ही है यह सोचकर भगवान ने उसी सीधे मार्ग से प्रस्थान किया [जया भगवं तीए अडवीए पविटे तया तत्थ धूली पाणिणं गम
SALE
॥२४६॥