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कल्पसूत्रे सशब्दार्थ
॥२४५॥
[जहा जो चक्कवही जीए सत्तीए सत्तमनरय पुढवि जोग्गाई जावइयाई हिंसाइ कूरकम्माई अजि सक्के ] जो चक्रवर्ती जिस शक्ति से सातवें नरक में जाने योग्य जितने हिंसादि क्रूर कर्मों का अर्जन कर सकता है [सो चेव चक्कवट्टी जइ तं सत्तिं इट्ठकज्जे संजोए ] वही चक्रवर्ती यदि उस शक्ति को अच्छे कार्य में लगाता है [ तो तावइयाई चैत्र अहिंसाई कम्माई अज्जिय मोक्खमवि पत्तुं सक्केई ] और उस शक्ति से अहिंसा आदि शुभ कर्म का उपार्जन करता है तो वह उस शक्ति से मोक्ष भी प्राप्त कर सकता है । [जे जीवा सुहमसुहं वा किंपि काउं न सक्केंति] जो जीव सामर्थ्य विहीन हैं- शुभ या अशुभ कुछ भी नहीं कर सकते [जे य तेयहीणा गलिबलिवद्दा विव होंति] जो गलियार बैल की तरह तेजोहीन होते हैं [जे य जडा विव जगसत्ताए आहणिज्जंति] जो जड़ की भांति जगत् की सत्ता से दबे रहते हैं [जेसिं पामरयाए भोगलालसाए दारिदस्स पमायरस य अवही एव नत्थि] जिनकी पामरता की भोगलालसा की दरिद्रता की और
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चण्डकौ - शिक वल्मि
कपार्श्वे
भगवतः कायोत्सर्गः
॥२४५॥