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चण्डकौ
॥२४४॥
भगवतः
कस्पस्त्रे । सुहकायव्व परायणा सत्ती अप्पणो एगओ एव अंसाओ उब्भवइ] इसी प्रकार शुभ और
शिक वल्मिसशब्दार्थ * अशुभ कर्तव्य में प्रयुक्त होनेवाली शक्ति आत्मा के एक ही अंश से उत्पन्न होती है।
कपाचे [परं तीए सत्तीए उवओगं सुहे असुहे वा कुज्जा, इच्चेयावइयं अवसिस्सइ] यह बात
कायोत्सर्गः दूसरी है कि उस शक्ति का उपयोग शुभ में करना या अशुभ में करना, यही शेष रहता है। यह व्यक्तियों के अधीन है। [ज तिव्वा अणि?पवित्तिगरी सत्ती भुजो भुजो धिकारिय बाहिं करणिज्जेत्ति मणुस्साणं एयारिसो वियारो भमभरियो दीसइ] 'तीव अनिष्ट वृत्ति को उत्पन्न करनेवाली शक्ति का बार बार धिक्कार कर बहिष्कार करना चाहिये' मनुष्यों का यह विचार भ्रम पूर्ण है [परं तेण सह एयं विस्सरंति जं मणुस्सस्स जा सत्ती जावइयं अनिद्रं काउं सकेइ सा चेव सत्ती इमवि तावइयं चेव काउं सकइ] । ऐसा विचार करनेवाले लोग भूल जाते है कि मनुष्य की जो शक्ति जितना अधिक अनिष्ट कर सकती है, वही शक्ति उतना ही अधिक इष्ट साधन भी कर सकती है। ॥२४४॥