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चण्डकोशिक वल्मिकपार्श्व भगवतः कायोत्सर्गः
कल्पत्रे प्रकार की चित्तस्थिति समान शक्ति संपन्न होती है [परमिमो भेओ-एगा वट्टमाणक्खणे :: सशब्दार्थे सुहे पओइया अन्नाय असुहे] दोनों में अन्तर यही है कि एक वर्तमान में शुभ में ॥२४३॥
प्रयुक्त हो रही है और दूसरी अशुभ में [तह वि दुण्हं कज्जसाहणसामत्थं तुल्लं चेव - गणणिज्ज] फिर भी दोनों का अपने अपने कार्य को सिद्ध करने का सामर्थ्य तो समान
ही गिना जाना चाहिये [जीए सत्तीए सुहा वा असुहा वा परिणामा हवंति, सा सत्ती IN अवस्सं इच्छणिज्जा एव मुणेयवा] जिस मूलभूत शक्ति से शुभ या अशुभ परिणाम
उत्पन्न होते हैं वह शक्ति अवश्य ही वांछनीय है ऐसा समझना चाहिये [जहा-आमन्नाणं साउपक्कन्नयाए पायणे अणेगोवओगिवत्थूणं भासरासी य समत्था सत्ती एगाओ चेव अग्गिओ समुब्भवइ] उदाहरण के लिए अग्नि की शक्ति को लीजिए एक ही अग्नि की शक्ति कच्चे अन्न को अच्छी प्रकार पकाती भी है और अनेक उपयोगी वस्तु को भस्म भी करती है। यह दो प्रकार की शक्ति अग्नि से ही उत्पन्न होती है [तहा सुहाऽ
॥२४३॥