________________
करुपयत्रे
| चण्डको. शिक वल्मिकपार्श्व भगवतः कायोत्सर्गः
॥२४२॥ ।
11 वस्था में प्रविष्ट देखकर लोग यह मान लेते हैं कि इसकी प्रकृति में परिवर्तन आना समन्दार्थे । संभव नहीं है। [वत्थुओ सा तहा भविडं न अरिहइ] किन्तु वास्तव में यह बात नहीं !
है [मणस्स कोऽवि अंसो जया वियडो होइ तया सो उचिएण उवाएण परिवटिङ सकिज्जइ] मन का कोई भी अंश जब विकृत हो जाता है तो उचित उपाय से उसे बदला जा सकता है [एयावइयं चेव नो किंतु अणिटुंसस्स जावइयं तिव्वं बलं पडिकूले विसए हवइ तं तावइयं चेव अणुकूलेऽवि विसए परिवटिङ सकिज्जइ] यही नहीं, अनिष्ट अंश का जिसना बल प्रतिकूल विषय में होता है उतना ही तीव्र और अनुकूल विषय में भी पलटा जा सकता है [काइवि बलवइ चित्तठिई इटा वा अनिट्टा वा होउ] चित्त की
कोई भी बलवती स्थिति, चाहे वह इष्ट हो या अनिष्ट हो [सा अइसइ ओवंओगि: : याए गेज्झा एव] अतिशय उपयोगी रूप में ही उसे ग्रहण करना चाहिये [जओ दुविहा
वि चित्तदिई समाण सामत्थवई हवइ] कारण यह है कि दोनों (इष्ट और अनिष्ट)
॥२४२॥