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________________ कल्पसूत्रे कालो वालो णिवसमाणो आसि] उस भयानक जंगल में चण्डकोशिक नाम का काल के चण्डको शिक वल्मिसशब्दार्थे जैसा विकराल काला दृष्टि विष सर्प रहता था [सो य निनिय कूरयाए तेण मग्गेण कपाधै ॥२४॥ गमणाऽऽगमणं कुणमाणे पंथजणे दिट्ठीए जालेमाणे मारेमाणे दंसेमाणे विहरइ] वह भगवतः अपनी क्रूरता से उस रास्ते से आने जानेवाले पथिकों को अपनी दृष्टि के विष से कायोत्सर्गः जलाता घात करता मारता और डंसता था [सो तीए महाऽवीए परिभमिय परिभमिय .. जं कंचि सउणगमवि पासइ तं पिणं डहइ] वह उस जंगल में घूम घूम कर जिस किसी पक्षी को भी देखता, उसी को भस्म कर देता था [तस्स विसप्पहावेण तत्थ तणाणि । वि दडूढाणि] उसके विष के प्रभाव से वहां का घास भी जल गया था [ण य पुणो नवीणाणि तणाणि समुब्भवंति] उस विष के कारण वहां नया घास भी नहीं उगता | था। [एएण महोवद्दवेण सो मग्गो ओरुद्धो आसी] इस महान उपद्रव के कारण वह ॥ मार्ग रुक गया था अर्थात् उधर से कोई आता जाता नहीं था [तेण उण्जुमग्गेण गच्छ ॥२४॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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