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भगवतोयक्षकृतो. पसर्गवर्णनम्
कम्पयत्रे In अपनी जगह चला गया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे] उस काल सशब्दार्थे
और उस समय में श्रमण भगवान महावीर ने [तत्थ णं अट्टाहिं मासद्धखमणेहिं चाउ॥२३॥
म्मासं वइक्कमिय अत्थियाओ गामाओ पडिनिक्खमइ] उस अस्थिक ग्राम में चातुर्मास किया और चातुर्मास में अर्द्धमासखमण किया। इस प्रकार भगवान आठ अर्धमासखमणों से चातुर्मास व्यतीत करके अस्थिक ग्राम से निकले [पडिनिक्खमित्ता पवणुव्व अप्पडिहयविहारेणं विहरमाणे सेयंबियं णयरिं पट्टिए] निकलकर वायु के समान अप्रतिबद्ध विहार से विचरते हुए भगवान श्वेताम्बीनगरी की ओर पधारे ॥४६॥ - भावार्थ-तत्पश्चात् क्रम से विहार करते हुए श्री वीर प्रभु पहले चौमासे में अस्थिक नामक ग्राम में पधारे। वहां शूलपाणि नामक यक्ष के यक्षायतन में, रात्रि के समय, कायोत्सर्ग करके स्थित हुए। वह यक्ष दुष्ट भावनावाला था। उसने अपने स्वभाव के अनुसार भगवान् को उपसर्ग दिया। उसने डांसों और मच्छरों के अनेक समूह वैक्रिय
॥२३॥
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