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________________ SCE . G5 '.. कल्पसूत्रे जाव उवसग्गे कारं कारं खेयखिन्नो विसण्णो जाओ] इस प्रकार वह दुराशय यक्ष सारी भगवतोसशब्दार्थे यक्षकृतो. रात उपसर्ग करवा करवा कर खेदखिन्न और विषादयुक्त हो गया [परं भयवं अविसपणे ॥२३०॥ पसर्गअणाइले अव्वहिए अदीणमाणसे तिविह मनवयकायगुत्ते चेव ते सव्वे वि उवसग्गे सम्मं । वर्णनम् . सहीअ, खमीअ, तितिक्खीय, अहियासीअ] परन्तु भगवान ने विषाद रहित कलुषता रहित व्यथा रहित दीनता रहित तथा मनवचन काया से गुप्त जितेन्द्रिय रहकर ही उन सब उपसर्गों को सम्यग् प्रकार से सहन किया बिना क्रोध के सहन किया अदीन । . भाव से सहन किया और निश्चलता के साथ सहन किया [तए णं से जक्खे ओहिणा ... पहुं मणसा वि अविचलियं दढं आभोगिय अगाहं खमासायरं पहुं सयावराहं खमाविय बंदइ नमसइ] तब यक्ष ने अवधिज्ञान से प्रभु को मन से भी चलित न हुआ तथा । दृढ जानकर अथाग क्षमा के सागर प्रभु से अपने अपराध के लिए क्षमा मांग कर वन्दन नमस्कार किया [वंदित्ता नमंसित्ता सयं ठाणं गओ] वन्दना नमस्कार करके १ ॥२३०॥ ... ...marti '
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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