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कल्पसूत्रे
पशन्दार्थे ॥२२२॥
वर्गों के फूलों की वर्षा हुइ [चेल्लुक्खेवे कए] वस्त्रों की वर्षा हुई [आहयाओ दुंदुहीओ] षष्ठक्षपण
पारणार्थं आकाश में दुंदुभि बजी और [अंतरा वि य णं आगासंसि अहोदाणं अहोदाणं ति घुटे]
वहुलआकाश में 'अहोदानं, अहोदानं,' इस प्रकार का घोष हुआ। [तए णं से समणे । ब्राह्मणगृहे.
गमनादि भगवं महावीरे कोल्लागाओ संनिवेसाओ पडिनिक्खमइ] उसके बाद श्रमण भगवान् वर्णनम महावीर कोल्लाग संनिवेश से निकले [पडिनिक्खमित्ता जणवयविहारं विहरइ] और निकल कर जनपद में विचरने लगे ॥४५॥
भावार्थ-शक के चले जाने के पश्चात् श्रमण भगवान् महावीरने दूसरे दिन
में प्रभात प्रकट हो चुका है, ऐसी रात्री के होने पर तथा कमलपत्रों के विकास एवं चित्रमृग के नयनों का जिस में उन्मीलन हो चुका है ऐसे शुभ्र आभायुक्त प्रातः काल होने पर तथा रक्त अशोक के प्रकाश तुल्य पलाश पुष्प के समान शुक के मुख समान एवं गुंजा के अर्ध भाग की ललई के समान कमलवनों को विकसित करनेवाला ॥२२२॥