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कल्पसूत्रे सशब्दार्थ | ॥२१६॥
यह देखकर दया के सागर भगवान् श्री वीर स्वामी ने शक देवेन्द्र देवराज को भगवतो
गोपकृतो. रोक दिया । तब वह शक देवेन्द्र देवराज वीर भगवान् से इस प्रकार वचन बोले
पसर्गस्वामिन् ! देवानुप्रिय को अर्थात् आप को आगे भी अनेक कष्ट परीषह और उपसर्ग वर्णनम् (परीषह शीत, उष्ण आदि, उपसर्ग देवादिकृत कष्ट) आएंगे। मैं उनका प्रतीकार करने के लिए देवानुप्रिय के पास रहता हूं। तब शकेन्द्र के वचन सुनकर भगवान् महावीर स्वामी ने कहा-हे शक ! जो अतीत कालीन, भविष्यत् कालीन और वर्तमान कालीन तीर्थकर है वे सभी अपने ही उत्थान (चेष्टा-विशेष) कर्म (चलना आदि क्रिया) वल (शरीर की शक्ति) वीर्य (जीव संबंधी सामर्थ्य) पुरुषकार (पुरुषार्थ), और पराक्रम (कार्य में सफल हो जाने बाला पुरुषार्थ) से कर्मो का क्षय करते हैं। दूसरे की सहायता के ) विना ही विचरते हैं देवों असुरों नागों. यक्षों राक्षसों, किन्नरों, कि पुरुषों गरुडों गन्धर्वो और महारोगों की अपेक्षा नहीं करते ।इस कारण हे शक । मुझे किसी की सहायता से ॥२१६॥