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________________ पक्षपणपारणार्थ कससूत्रे सशन्दार्थ ॥२१७|| ब्राह्मणगृहेगमनादि वर्णनम् प्रयोजन नहीं है। इस प्रकार के वचन सुनकर शक देवेन्द्र देवराज ने अपना अपराध खमाकर वन्दना की, नमस्कार किया। वन्दना और नमस्कार करके जिस दिशा से प्रादुभूत हुए थे, उसी दिशा में चले गये ।सू० ४४॥ ... मूलम्-तए णं समणे भगवं महावीरे कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मीलियम्मि अह पंडुरे पहाए रत्तासोगप्पगासे किंसुय-सुयमुह गुंजद्धरागसरिसे, कमलागर-संडबोहए उट्ठियम्मि मूरे सहस्सरस्सिम्मि दिणयरे तेयसा जलंते-सदोरय मुहपत्तिं पडिलेहित्ता, सदोरय मुहपत्तिं मुहेबंधीअ पडिलेहिज गोच्छगं, गोच्छगलइयंगुलिओ, वत्थाई पडिलेहए रयहरणं पडिलेहित्ता पात्तगं पडिलेहए। कहियमवि| पंच्चयत्थं च लोगस्स नाणविहविगप्पणं। जत्तत्थं गहणत्थं च, लोगे लिंग -
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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