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भगवतोगोपकृतो
पसर्ग
वर्णनम्
कल्पसूत्रे पओयणं । एवं सोच्चा सक्के देविंदे देवराया नियमवराहं खमाविय वंदइ नम- सशब्दार्थे ॥२०५॥
सइ, वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसिं पाउब्भूए तामेव दिसिं पडिगए॥४४॥ - शब्दार्थ-[जयाणं समणे भगवं महावीरे खत्तियकुंडग्गामाओ निग्गच्छित्ता] 1 जब श्रमण भगवान महावीर क्षत्रियकुण्डग्राम से विहारकर [कुम्मारगामस्स समीवं
समणुपत्ते ] कुर्मार ग्राम के समीप पहुँचे [तया णं सूरो अत्थमिओ] तब सूर्य अस्त हो गया [सूरे अत्थमिए साहूणं विहरणं अकप्पणिज्जंति कटु भगवं गामासण्णतरुयले काउसग्गे ठिए] सूर्य के अस्त हो जाने पर साधुओं को विहार करना नहीं कल्पता, यह सोचकर भगवान् ग्राम के समीप में एक वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग करके स्थित हो गये।
[भगवं य जावजीवं परीसहसहनसीले आसी] भगवान् जीवनपर्यन्तशीत उष्ण आदि परीषहों को सहन करने वाले थे [अओ इंददिपणेण देवदूसेण वि वत्थेण भगवया
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॥२०५॥.