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________________ नन्दि वर्णनम् कल्पसूत्रे हुए। वह लगातार किंचित उष्ण जल की धारा के समान अश्रुधारा बहाने वाले नेत्रों । प्रभुविरहे सशब्दार्थे । को पोंछकर अत्यन्त दुःखित अपने आत्मा की ही निन्दा करने लगे-हमारे पाप के परि वर्धनादीनां १९४॥ in णाम को धिक्कार है। यह बन्धुवियोग हमको इन्द्र के वज्र के समान व्यथा पहुँचा रहा विलाप है। इस प्रकार असह्य प्रभु वियोग श्री वर्धमान स्वामी के विरह-जनित खेद से IR दुःखित हो कर अपनी प्रजा को आनन्दित करने वाले नन्दिवर्धन राजा चिल्ला-चिल्ला कर रुदन करने लगे। उस समय में अश्व और हस्ती भी आंसू बहाते हुए अत्यन्त शोक के भागी हुए। श्री वर्धमान स्वामी से वियोग के समय नाचने में निपुण मयूर नृत्य करना भूल गये ! वृक्षोंने फूलों का परित्याग कर दिया, अर्थात् वे भी प्रभु के विरह से फ़लों की शोभा से रहित हो गए, तथा वन में विहार करने वाले मृगों ने मुख में लिया हुआ घास भी त्याग दिया। कण का भक्षण करने वाले पक्षियों ने कणभक्षण करना भी. छोड दिया इस प्रकार समस्त प्राणीगण भगवान् के वियोग से व्यथित हुए ॥१९४॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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