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________________ कल्पसूत्रे सशब्दार्थ १९५॥ स्म प्रभुविरहे नन्दिवर्धनादीनां विलापवर्णनम् तत्पश्चात् भगवान् के विरह से दुःखी नन्दिवर्ध राजा श्री वर्धमान स्वामी को हृदय से स्मरण करते हुए कहते है । “यत्र तत्र च सर्वत्र, त्वामेवाऽऽलोकयाम्यम् ॥ वियुक्तोऽसीति त्वं, वीर! दुःखादेवानुमीयते" ॥१॥ अर्थात्-हे भ्राता में जहां तहां सब जगह तेरे को ही देखता हूँ. अतः कौन कहता l है कि तेरा वियोग हुआ है, मुझे तो चारों ओर तूं ही तूं दिखाई दे रहा है परंतु हे | वीर ! जब अंतर में दुःख होता है तब अनुमान करता हूं कि तेरा वियोग हो गया है। - इस प्रकार मन ही मन बोलते हुए नन्दिवर्धन राजा ज्ञातखण्ड उद्यान से अपने भवन, की ओर रवाना हुए ॥४२॥ ... मूलम्-तत्थ णंदिवद्धणेण वुत्तं हे वीर ! अम्हे तं विणा सुण्णं वणं विव | पिउकाणणं विव भयजणणं भवणं कहं गमिस्सामो। ॥१९५॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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