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कल्पात्रे समन्दार्थे १९३॥
प्रभुविरहे नन्दिवर्धनादीनां . विलाप
वर्णनम्
पर विद्यमान जन नेत्रहीन जैसे हो गये ! प्रभु के विराजने से नवीन वहां की पहले वाली शोभा, अर्थात् भगवान् वर्धमान के विराजने के स्थान की वह रमणीयता उसी प्रकार नष्ट हो गई, जैसे दीपक के बुझ जाने पर भवन की शोभा नष्ट हो जाती है। जैसे पानी का बहाव समाप्त हो जाने पर नदी के तट की शोभा मलीन हो जाती है अथवा रस-भाग के सूख जाने पर पत्ते निष्प्रभ हो जाते हैं, उसी प्रकार लोगों के हृदय मलीन उत्साहहीन हो गये। लोगों के लोचनों से महती अश्रुधारा ऐसी प्रवाहित होने लगी, जैसे वर्षाकाल में वर्षा की धारा वह रही हो । भगवान् के ज्येष्ठभ्राता, शत्रुओं के विजेता नन्दिवर्धन राजा, जिनके आभूषण नीचे गिर रहे थे, इस प्रकार सब अवयवों से धरती पर धडाम से गिर गये, जैसे झरते हुए पुष्पों वाला वृक्ष कट कर गिर गया हो धरतीपर गिरने के बाद वह मूर्छित हो गये । फिर-मूळ दूर करने वाले शीतल उपचार | से-पंखा आदि के द्वारा हवा करने आदि से होश में आये भी तो अत्यंत ही दुःखी
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