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प्रभुविरहे
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विलाप
पाने ल्लास सूखने लगा। जैसे जल के अभाव से विकसित कमलों का समूह शोभाविहीन
नन्दि शब्दार्थे . हो जाता है, उसी प्रकार वहां स्थितजनों के हृदय दुस्सह प्रभु-विरह से श्री बर्धमान
वर्धनादीनां २९२॥ खामी के वियोग से मुरझा गया। सब के हृदय को प्रफुल्लित करने के लिए प्रवृत्त
वर्णनम् । हुआ सुन्दर, शीतल, मन्द और सुगंधिक समीर (पवन) भी सांप के श्वास के समान
संतापर्वक हो उठा। पहले भगवान् वर्धमान खामी के दीक्षा ग्रहण के निमित्त हुए .. - उत्सवरूपी नन्दनवन में, श्री वर्धमान स्वामी के दर्शन रूप कल्पवृक्ष के मूल में इष्ट
सिद्धि से आनन्द की जो लहरें उत्पन्न हुई थी, वह सब प्रभु के विरहरूप वडवानल में भस्म हो गई। जैसे चन्द्रमा का वियोग चकोर को व्यथित करता है, उसी प्रकार भगवान् का वियोग लोकों को व्यथित करने लगा। अथवा जैसे हृदय-प्रदेश में चुमा हुआ शल्य व्यथा पहुंचाता है, वैसे ही वह वियोग सब को व्यथा देने लगा। सब और फैले हुए विशाल प्रभु विरह के अन्धकार के कारण दीर्घनयन होने पर भी दीक्षास्थान ॥१९२॥