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पाल्पमत्रे
समन्दार्थे -॥१९॥
प्रभुविरहे नन्दिवर्धनादीनां विलापवर्णनम्
हो गया है। [एवं भासमाणो णदिवद्धणो राया स णिसंतं पट्टिओ] इस प्रकार बोलते हुए नंदीवर्धन राजा ज्ञात खण्ड उद्यान से अपने भवन की ओर रवाना हुए ॥४२॥ . अर्थ-'तए णं' इत्यादि । दीक्षा ग्रहण करने के अनन्तर श्रमण भगवान महावीर पूर्वोक्त अभिग्रह को अंगीकार करके शरीर की शुश्रूषा के त्यागी हुए और देह संबंधी मोह से रहित हुए, जब अनुमान दो घडी दिन शेष था, तब 'कुर्मार' ग्राम की ओर || विहार किये। उस समय, जितने समय तक श्री वर्धमान स्वामी दिखाई देते रहे, उतने
समय तक नन्दिवर्धन आदि जन भगवान् श्री वर्धमान प्रभु को देखने के लिए उनकी | ओर मुंह उठाए हुए नेत्र-पुटों से उनके दर्शनरूपी अमृत का पान करते रहे और प्रसन्न होते रहे, किन्तु बाद में श्री वर्धमान स्वामी जैसे-जैसे दृष्टिपथ से दूर होते चले गये, वैसे-वैसे दीनों के समान वहां खडे हुए सभी लोगों का वह उत्कृष्ट आनन्द दूर होने लगा। जैसे ग्रीष्म ऋतु में सरोवरों का जल सूखने लगता है, उसी प्रकार उनका हर्षो
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