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________________ कल्पसूत्रे सशन्दार्थ ॥१९॥ विसरीयं] उस समय नृत्यकरने में शूर मयूर भी नाचना भूल गये [विडविणी कुसुमाई प्रभुविरहे नन्दिचईअ] वृक्ष फूलों का त्याग करने लगे [काणणविरहणपरायणहरिणा उपात्ताई तणाइं] वर्धनादीनां वन में विचरण करने में परायण हरिणों ने मुख में ग्रहण किये तृणों को भी त्याग दिया विलाप वर्णनम् और [कणभक्खिणो पक्खिणोय आहारं परिहरीअ] कण भक्षण करने वाले पक्षियों ने चुगना बंद कर दिया [एवं सव्वेसु पाणिसु पहुविरहविहुरेसु सो नरवरो पहुं चेयसा चिंतमाणो तओ एवं वयासी] इस प्रकार सभी प्राणिगण प्रभु के विरह से व्यथित होगए उसके बाद भगवान् के विरह से दुःखी राजा नंदिवर्द्धन मन ही मन भगवान् का चिन्तन करते हुए बोले:[जत्थ तत्थ य सधत्थ तुमं चेवावलोयए] हे भ्रात ! मैं यत्र तत्र सर्वत्र तुझे ही देखता हूँ [विउत्तो सित्ति तुं वीर ! दुक्खाएवाणु मिजंति] अतः कौन कहता है कि तुम्हारा वियोग हो गया है किन्तु जब अंतर में दुःख होता है तब लगता है कि तुम्हारा वियोग - ॥१९॥ TKimdi
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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