SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 187
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कसरत्रे सपनायें ११७॥ iml [पच्चोयरित्ता सीहासणवरे पुवाभिमुहे संनिसपणे] उतरकर श्रेष्ठ सिंहासन पर पूर्व की ivil सुरेन्द्रादी नां शिक्षिका और मुख करके विराजे [तओ पच्छा उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए उवागच्छइ] तदनन्तर वहनम् भगवान उत्तर पूर्वदिशा-ईशानकोण में जाते हैं। [उवागच्छित्ता हारद्वहाराइयं सव्वालंकारं ओमुयइ] जाकर हार, अर्द्धहार आदि समस्त अलंकारों को उतारने लगे [तए णं वेसमणे देवे जंतुवायपडिए समणस्स भगवओ महावीरस्स हंसलक्खणे सेयवत्थे l आभरणालंकाराइं पडिच्छइ] तब वैश्रमण देव उडते जंतु की तरह अचानक आ पहुंचे । और उन्होंने हंस के समान उजले श्वेत वस्त्र में उन अलंकारों को ले लिये ॥४०॥ ___अर्थ-तत्पश्चात् वे मनुष्य, सुरेन्द्र, दोनों असुरकुमारेन्द्र, दोनों नागकुमारेन्द्र, एवं दोनों सुपर्णकुमारेन्द्र श्री वीर भगवान् द्वारा आश्रित पालकी को वहन करतेML कंधों पर धारण करते हुए उत्तरक्षत्रिय कुण्डपुर नगर के बीचोंबीच होकर निकले। निकल कर जहां ज्ञातखण्ड नामक उद्यान था, वहीं आये। आकर के एक हाथ से कुछ ॥१७॥
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy