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कल्पसत्र सशब्दा ॥१५७||
वर्णनम्
IN प्रभो ! आप की जय हो, जय हो; (आप पुनः पुनः सर्वोत्कृष्ट होकर वर्ते)। हे त्रिलोकी I भगवतः
संवत्सर| नाथ ! आप बोध प्राप्त कीजिये तथा जगत् के एकेन्द्रिय आदि सभी प्राणियों की रक्षा II
दानपूर्वक के लिए और दया के लिये धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति कीजिये। अर्थात् मरनेवाले एकेन्द्रिय निष्क्रमण आदि प्राणियों की रक्षा के लिए ‘मा हन, मा हन' अर्थात् 'मत मारो, मत मारों' ऐसा, तथा 'दया करो, करुणा करो' ऐसा उपदेश कीजिये । यह धर्मतीर्थ समस्त लोक में द्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय रूप प्राणियों को, भूतों (वनस्पतियों) को, जीवों (पंचेन्द्रियों) को तथा सत्वों (पृथ्वीकाय, अप्काय, तेजस्काय, वायुकाय) को कल्याणकारी है और भविष्य में भी कल्याणकारी होगा। - इस प्रकार स्वयं बोध को प्राप्त भगवान को दीक्षा ग्रहण करने के लिए लोकान्तिक देवों का जो कहना है, सो उनका जितकल्प (परंपरागत आचारमात्र) ही है। तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर ने वर्षीदान देना प्रारंभ किया। बह इस प्रकार सूर्योदय के
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