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भगवतः कलाचार्यसमीपे प्रस्थानादि वर्णनम्
कल्पसूत्रे प्रासाद की ओर चले [एयारिसपवित्त पहु पवित्तिओ माउपियाइणं चेयसि भुजो भुजो सशब्दार्थ , अमंदाणंदसिंधूच्छलंततरलतरंगो न संमाओ] प्रभु की इस पवित्र प्रवृत्ति से माता ॥१४२॥
पिता के चित्त में पुनः पुनः उत्पन्न होनेवाली तीव्र आनन्द-सागर की उछलती हुई चपल लहरें समाई नहीं ॥३५॥ - अर्थ-'एएसि णं' इत्यादि। इन व्याकरण, नय, प्रमाण, एवं धर्मसंबंधी प्रश्नों के " चित्त में सन्तोष उत्पन्न करने वाले उत्तर से वहां स्थित सभी लोग आश्चर्ययुक्त हो गये। । कलाचार्य का अन्तःकरण भी सन्तुष्ट हुआ। तत्पश्चात् कलाचार्य ने विचार किया।
क्या विचार किया सो कहते हैं-'अहा, आश्चर्यजनक है कि इस दूधमुंहे कोमल बालक ने ऐसी चित्त में चमत्कार करने वाली विद्या किस मनुष्य से सीखी है ? मेरे मनमें जो
शंका बहुत समय से बनी हुई थी और आज तक जिस शंका का किसी ने भी समा... धान नहीं किया था, वह सब शंका आज बालक वर्द्धमान ने दूर कर दी। यथार्थ ही
॥१४२॥