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________________ भगवतः कलाचा समोर प्रस्थानादि वर्णनम् पत्रे चंदम्मि धवलत्तं कि आरोविजा ?] क्या चन्द्रमा में धवलता का आरोपण किया जाता है ? | मनन्दा नहीं कारण चन्द्र स्वयं शुभ्र है। [सुवण्णं सुवण्णजलेण किं परिकरिजा ?] क्या सुवर्ण को | सुवर्ण के पानी से संस्कारित करने की आवश्यकता रहती है ? नहीं कारण स्वर्ण स्वयं स्वर्ण जल से परिष्कृत है [जो भयवं णागत्तिगमहालओ] जो भगवान् तीन ज्ञान-मतिश्रुत| अवधि के भण्डार है [महाविण्णाणजलही] महान् विज्ञान के समुद्र, [महासामत्थणिहि] विशाल शक्ति के निधान [महाबुद्धि] महान् बुद्धिमान [महाधीरो] महाधीर [महागम्भीरो य | अत्थि] और महान् गम्भीर है [सो अप्पणाणिणो अंतिए पढिउंगच्छिज्जति महं असमं जसं] वे वर्द्धमान स्वामी अल्पज्ञानी कलाचार्य के पास पढने जाएँ यह अत्यन्त अयुक्त | AL बात थी [एयाए पवित्तीए देवलोए सुहम्माए सहाए सकस्स देविंदस्स देवरपणो आसणं | चलिअं] इस प्रवृत्ति से देवलोक में सुधर्मा सभा में शक्र देवेन्द्र देवराज का आसन चलायमान हुआ [तए णं आसणे चलिए समाणे ओहिणा आभोगिय सकिंदो सिग्धं -
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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