SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ . . ॥१३॥ पपत्रे -त्ति कटु तप्पडिच्छं करीअ] अभी मेरे पास आनेवाला है, ऐसा सोचकर उसकी भगवत समन्दार्ये कलाचार्यप्रतीक्षा करने लगा किन्तु खंडिय कलामंडिओ पंडिओ कि अखंडकलामंडियं तं समीपे पुरिसुत्तमं] किन्तु थोडी सी कला को जाननेवाला पण्डित सकल कलाओं से सुशोभित । प्रस्थानादि वर्णनम् [सयलाणवज्जविज्जा अहिदाइ देवया विहेय वंदणं भयवं पाढिउं सकिज्जा ?] समस्त समीचीन विद्याओं के अधिष्ठायक देवोंद्वारा वन्दना करने योग्य त्रिशला तनय पुरु॥ षोत्तम भगवान् को क्या पढ़ा सकता था ? [परिसुद्धं कंचणं किं सोहिज्जा ?] पूर्णरूप से । । शुद्ध सुवर्ण को क्या शोधा जाता है ? नहीं क्योंकि वह स्वयं शुद्ध है [अंबतरूतोरणेहिं । किं अलंकरिज्जा ?] क्या आम के वृक्ष को तोरणों से सजाया जाता है ? नहीं कारण वह । ....पत्तों से सजा हुआ है [अमयं महुरदव्वेहिं किं वासिज्जा ?] क्या अमृत को मधुर द्रव्यों से वासित किया जाता है नहीं कारण अमृत स्वयं मधुर है [सरस्सई पाठविहिं किं सिक्खिजा?] शारदा देवी को क्या पाठविधि सीखाइ जाती है ? नहीं कारण यह स्वयं शिक्षित है।
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy