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कल्पसूत्रे शिन्दार्थे ।१२०॥
भगवतोवाल्यावस्थावर्णनम्
- जयज्झुणी सुरज्झुणि समजाण । तए णं णयग्गीवो सो देवो खामिय देवाहि
देवो समत्तो सयधामं पत्तो ॥३३॥ __ शब्दार्थ-[तए णं भगवं महावीरे धवलदलविलसंतबितियाचंदोव्व] तब क्रम से शुक्लपक्ष की द्वितीया का चन्द्र [सोम्मकरहिं संतगुणनियरेहिं गिरिकंदरमल्लीणे चंपगपायवेव वएण संवढइ] जैसे अपनी सोम्यकिरणों से बढता है, उसी प्रकार भगवान् महावीर सद्गुणों के समूह से तथा जैसे पर्वत की गुफा में स्थित चम्पक-वृक्ष क्रम से बढता है उसी प्रकार वय से, बढने लगे [एवं से भगवं महावीरे मऊरपक्खकागपखसोहीहिं सवएहिं सिसूहि सद्धिं बालवओ अणुरूवं गोवियसरूवं कीलेइ] इस प्रकार भगवान् महावीर मयूरपक्ष से सुशोभित चोटी से शोभायमान समवयस्क बालकों के साथ अपने असली स्वरूप को गोपन करके, बाल्यावस्था के अनुरूप क्रीडा करने लगे।
[एगया देवलोए देवगणालंकियाए सुहम्माए सभाए] एकबार देवलोक में देव
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॥१२॥