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कल्पसूत्रे सबन्दायें ११२१॥
|समूह से अलंकृत सुधर्मा सभा में [समासीणो सुणासीरो सोहम्मिदो अणुवमगुणेहिं I भगवतो. | वद्धमाणस्स वद्धमाणस्स] बैठे हुए सौधर्मेन्द्र ने अनुपम गुणों से बढते हुए वर्धमान
बाल्याव
स्थावर्णनम् [पहुणो] प्रभु के [परक्कमवण्णिउं उवक्कमइ] पराक्रम का वर्णन करना आरंभ किया [तं सोच्चा निसम्म सव्वे देवा देवीओ य हरिसवसविसप्पमाणहियया संजाया] उसे सुनकर और समझकर सभी देवों और देवियों का हृदय हर्ष के वशीभूत होकर खिल गया। [तत्थ कोऽवि मिच्छादिट्ठी देवो तं पहुपरक्कममहिमं] किन्तु उनमें से प्रभु के पराक्रम की महिमा पर [असदहंतो इस्सालुओ अंगीकयदुब्भावणो मणुस्सलोगं हव्व| मागम्म] विश्वास न करता हुआ, ईर्षालु तथा दुर्भावना को अंगीकार करनेवाला एक मिथ्यादृष्टिदेव शीघ्र मनुष्यलोक में आकर [बालेहिं कीलमाणं भयवं नियपिटुम्मि समारोहिय] बालकों के साथ क्रीडा करते हुए भगवान् को अपनी पीठ पर बिठाकर [सयवेउव्वियसत्तीए सरीरं सत्तटुतालतरुपरिमियं लंबमाणं विउव्विय] अपने वैक्रिय
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