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________________ कल्पसूत्रे ॥११७॥ | यशोवाद से-'अहा ! यह कैसा पुण्प-भागी हैं इस प्रकार एक देश व्यापी साधुवाद से, Trilमातापितृसशब्दार्थ कीर्तिवाद से-सर्वदिशाव्यापी साधुवाद से, वर्णवाद से-प्रशंसावाद से, शब्दवाद से, मा भ्याम् कृत भगवतोwill अर्द्धदिशाव्यापी साधुवाद से, श्लोकवाद से-सर्वत्र गुणों के बखान से, स्तुतिवाद से l नामाभिबन्दीजनों द्वारा किये जाने वाले गुण कीर्तन से तथा-विपुल धन से, विपुल स्वर्ण से, धानम् . . विपुल कर्केतन आदि रत्नों से, विपुल चन्द्रकान्त आदि मणियों से, विपुल मोतियों से, विपुल दक्षिणावर्तादि शंखों से, विपुल राजपदरूप शिला से, विपुल मूगों से, विपुल | लालों से, तथा आदि शब्द से विपुल चीनी वस्त्र कंबल आदि से, तथा-विद्यमान प्रधान ril द्रव्यों से, प्रीति से-मानसिक तुष्टि से, सत्कार से-स्वजनों द्वारा वस्त्रादि से किये हुए सत्कार से अधिकाधिक वृद्धि को प्राप्त हुआ है । इस कारण हमारे इस बालक का | | गुणों से प्राप्त, गुणनिष्पन्न नाम 'वर्द्धमान हो। इस प्रकार कहकर भगवान् श्री महावीर का नाम 'वर्द्धमान' रखा। श्रमण भगवान् Iml॥११७||
SR No.009361
Book TitleKalpsutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1973
Total Pages912
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_kalpsutra
File Size49 MB
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